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    Donderdag 02 Mei 2019

    इत्र का राज.......

    कुछ सालों पहले,हसन राज्य में,राजा बकिंघम राज करता था।आजकल के सभी नेताओं की तरह वह भी अपनी प्रजा के सामने दयावान व हृदय सम्राट बना फिरता था,असल में वह बहुत क्रूर,एवं अत्याचारी था।
          उस राजा की सबसे खास,बात यह थी कि,उसे अपने राज्य के प्रत्येक व्यक्ति की उसे सटीक खबर रहती थी,इसी कारण सभी राज्यवासी के मन में उसके प्रति डर रहता था।
    राजा बकिंघम,अपने शत्रुओ को मौत की सजा देता था, जब भी कोई शत्रु उसके हाथ लग जाता तो वह अपनी लंबी उम्र के लिए यज्ञ कराता,और साथ ही अपने शत्रु की बलि भी दे देता था।                                                 
    कांची, के युद्ध में तो राजा ने अपनी सारी सीमाएं तोड़ दी,उसने अपने शत्रु राजा हिंगेश को पराजित कर ,उसके समस्त राज्य की आहूति दे दी,इतने बड़े नरसंहार के पश्चात भी उसे कोई अफसोश नहीं था,परंतु राजा के सेनापति आरिण्य को यह सही नहीं लगा ,और उसने ठान लिया की वह राजा से इसके बारे में चर्चा करेगा।
                           राजा भी आरिण्य की हर बात को मानता था,रात्रि होते ही,आरिण्य राजा के पास जाकर कहता है, की आपने हिंगेश के राज्य के साथ गलत किया है।
                                                                  तो फिर राजा कहता है,तुम बताओ अब क्या करना चाहिए,आरिण्य सोचता है कि यदि मैं अपने गुरु से दक्षिणा दिला दूँ,तो आगे जाके राजा सुधर जायेगा,तो वह कहता है,आपको प्राश्चित करना होगा।
            राजा कहता है,ठीक है,कहो क्या करना होगा?
    आपको मेरे गुरूजी से मिलना होगा,वे आपको बताएँगे,की क्या करना होगा।
    राजा बकिंघम मान जाता है।
                   
    अगली सुबह दोनों गुरुजी के आश्रम जाते है,आरिण्य,गुरूजी से पैर पड़ आशीष लेता है
    ,गुरूजी कहते है,आरिण्य तुम इस क्रूर राजा को यहाँ से ले जाओ,और हाँ, आरिण्य यदि तुम मेरे शिष्य हो,तो उस राजा के किसी काम में साथ न देना ,हिंगेश के साम्राज्य के साथ जो हुआ ,मुझे सब ज्ञात है,तुमने राजा का साथ दिया है,इसलिए पाप के भागी तुम भी हो।
                  यह सुन सेनापति अपनी गलती मानते हुए ,गुरूजी का आशीर्वाद लेकर जाता है,राजा से कहता है,गुरूजी की मुझ पर अभी कृपा नहीं है,अतः वे हमसे नहीं मिल पाएंगे।
    राजा कहता है,मैं यदि जाऊंगा तो आज ,उनसे मिल कर ही जाऊंगा।
               कहते हुए ,राजा आश्रम के भीतर पहुँच जाता है,फिर क्या,क्रोधित गुरु,राजा को श्राप दे देते है,
                                                          तुम अपने कर्मो की सजा,अपने किसी प्रिय संबंधी के माध्यम से भुगतोगे, और तब तुम्हारा विनाश होगा।
                                     राजा क्रोध में आकर गुरूजी पर वार कर देता है,यह देख सेनापति फूट फूट कर रोने लगता है,
    और कहता है,ये सब मेरी ही गलती थी,गुरूजी माफ़ कर देना मुझे।
          राजा वापिस महल लौट जाता है,सेनापति निश्चित कर लेता है,की वह सेनापति का पद छोड़ देगा,वह अपनी इस गलती के लिए स्वयं को दोषी, मान रहा था।
                                                              वही दूसरी ओर राजा का बुरा हाल था,उसे पूरी रात्रि नींद नहीं आई ,सुबह राजा ने अपने राज्य और महल में किसी भी संबंधी को आने की अनुमति नहीं दी,केवल राजा और रानी ही महल में अकेले थे।
                  राजा,रानी से कहता है,की हमारी पुत्री किष्किंधा, कब लौट रही है,अपने मामा के यहाँ से,और हाँ उससे कह देना ,अकेले ही आये।
                                रानी कहती है,की मेरे बड़े भाई भी आ रहे है।
           राजा क्रोधित होकर ,तुम समझती क्यों नहीं हो,मैंने अपने सभी संबंधियों से संबंध नहीं तोड़े है,मुझे एक गुरु ने श्राप दिया है,की संबंधी के द्वारा तुम्हारा अंत होगा,केवल इसलिए में यह सब कर रहा हूँ।
                                                                       रानी ज्यादा सवाल न पूँछकर कहती है,ठीक है,मैं किष्किंधा को कह दूंगी।
    किष्किंधा के मामा के पास पत्र पहुँचता है,किष्किंधा तुम्हारी माँ का पत्र आया है ।
    किष्किंधा पत्र पड़ती    है,                                                             
                                    किष्किंधा, तुम बड़ी हो गयी हो,
    तुम्हे स्वयं अपनी यात्रा तय करनी चाहिए,अतः तुम इस बार अकेले यात्रा करोगी।
                                                 यह पत्र पढ़ ,वह खुश होती है ,और मामा को मना लेती है,की वह यात्रा अकेले ही करेगी।
                                                                            किष्किंधा अपने मामा के यहाँ से पालकी में दो सैनिको के साथ निकल जाती है,कुछ ही दूर चलने पर राजा बकिंघम के शत्रुओं को खबर मिल जाती है,की हसन राज्य की राजकुमारी की पालकी के साथ केवल दो सैनिक ही है,तब वह आगे वाली पहाड़ी पर अपने बहरूपियों को भेज देता है,जो पालकी को रोक देते है,और सैनिको को मार देते है,रानी किष्किंधा को भागने के अलावा कुछ नज़र नहीं आता ,वह भागते भागते एक उपवन में चली जाती है,वहां उन्हें एक युवक मिलता है,रानी उसे अपनी पूर्ण घटना के बारे में बताती है,
        युवक, राजकुमारी किष्किंधा को देख प्रफुल्लित हो उठता है,उसके मन को और,ह्रदय को शांति प्रतीत होती है,युवक राजकुमारी के नैनो को देखता रह जाता हैथ,वही राजकुमारी को भी  युवक की आँखों में खिंचाव सा महसूस हुआ,वे दोनों थम से गए थे।
    इतने में बहरूपिये पहुँच जाते है,
                                                युवक ,अपने युद्ध कौशल से सबको परास्त कर देता है,और रानी को उसके महल छोड देता हैं।
              राजकुमारी किष्किंधा,महल पहुँचते ही माता पिता (राजा रानी) के गले लगती है,और रास्ते की पूर्ण घटना बताती है।
                  राजा क्रोधित होता है,और सेनापति को बुलाता हैं,खबर आती है,की अब से सेना पति राज्य का पद नहीं सम्हालेंगे, और सेनापति इस के लिए राजा से क्षमा भी मांगता है।
        तभी राजा की पुत्री सुझाव देती है,जिसने उस की जान बचाई ,उसे राज्य का सेनापति बना ले ,राजा सोचता है,कि जिसने बिना किसी लालच के किष्किंधा को बचाया ,वह नेक व्यक्ति ही होगा,अतःराजा को यह प्रस्ताव स्वीकार होता है,
                                                       
    राजा कहता है कि, वह कहाँ मिलेगा,कहाँ रहता है?
                                                                           किष्किंधा कहती है,पिताजी पास के ही उपवन में वो मुझे मिला था,शायद फिर वाही मिलेगा, हम उससे कह देंगे।
         किष्किंधा केवल उस युवक के बारे में ही सोचती है,उससे मिलने के लिए बैचैन रहती है,रात भर नींद नहीं आती है।
                                                                               सुबह होते ही सबसे पहले उपवन में जाकर देखती है,वह उपवन में होता है,कुछ देर वह ठहरती है,और छुपकर उसे देखती है।
                                                                          नवयुवक रानी को देखकर कहता है, आप यहाँ कैसे।
    किष्किंधा,,मैं आपके लिए एक प्रस्ताव लेकर आई हूँ,मेरे पिता ने ,आपको बगदाद राज्य के सेनापति के लिए नियुक्त किया गया है,
                       यह सुन युवक कहता है,नहीं में यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं कर सकता,और कौन है,वो दयालु राजा जिन की आप बात कर रही है।
    किष्किंधा,मेरे पिता,हसन के राजा बकिंघम है,वे तुम्हे सेनापति के पद पर नियुक्त करना चाहते है।
    राजा बकिंघम का नाम सुनते ही,युवक थम सा जाता है, ठंडी सांस लेकर कहता है,तुम्हारे पिताजी, मेरे बारे में बिना कुछ जाने,मुझे सेनापति नियुक्त कर रहे है।
                                                      राजकुमारी,हाँ यह तो सही कह रहे हो,तो तुम अपना नाम बताओ,कहाँ से आये हो,यहाँ क्या करते हो।
                                युवक,मेरा नाम अजिनेश है,मैं यहाँ नया हूँ ,और में एक चोर हूँ,मेरे माता-पिता,बचपन में ही छोड़ चले गए थे।
             अब कहो ,राजकुमारी क्या तुम्हारे पिता एक चोर को राज्य का सेनापति बनाएंगे।
                                     
    दोस्तों,अभी यह कहानी शुरू ही हुई है,ये कहानी बड़ी दिलचस्प है,मैं जब इस पर विचार करता हूँ ,तो बड़ा आनन्द आता है,और दोस्तों जैसा की मेरी कहानी का शीर्षक इत्र का राज,तो इसका राज तो जानना ही पड़ेगा,इंतज़ार कीजिये ।
    आपका यह लेखक,स्टूडेंट भी है, तो याद रखियेगा एग्जाम टाइम पास में है, समय कम होने के कारण कहानी पूरी नहीं भेज पाता हूँ,इसलिए पूरे पार्ट जरूर पड़े।

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